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2024-07-01 04:36:01

स्त्रियों के लिए कमाना ज़रूरी क्यों _ आचार्य प्रशांत (2018)

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स्त्री के लिए तो बहुत बहुत बहुत ज़रूरी है अपने पांव पे खड़ा होना , हर चीज़ से समझौता कर लेना , कमाने से मत करना , आदमी के लिए भी ज़रूरी है औरत के लिए भी .

पर लड़कियों के लिए , स्त्रियों के लिए विशेषतया ज़रूरी है कि वह ज़िंदगी के किसी भी मुकाम पर आर्थिक रूप से पर निर्भर ना हो जाए .

और प्रकृति का खेल कुछ ऐसा है कि आर्थिक रूप से सबसे ज़्यादा पर आश्रित स्त्रियों को ही होना पड़ता है .

शादी हो गई तो नौकरी छोड़ दो क्योंकि पति दूसरे शहर में रहता है .

लो हो गई बेरोज़गार .

हो गई ना बेरोज़गार ?

पति थोड़ी नौकरी छोड़ता है कभी .

नौकरी हमेशा कौन छोड़े ?

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लड़की छोड़े .

अब इतना आसान है दूसरी जगह पर नौकरी मिल जाना गई .

अपना व्यवसाय आसानी से वह चला नहीं सकती क्योंकि व्यवसाय में दौड़ धूप करनी पड़ती है और मन में यह बात बैठ गई है कि दौड़ धूप करना लड़कियों का काम नहीं .

तो उसके लिए फिर घर को भी देखो तो .

और अगर दौड़ धूप कर रहा है तो साथ ही साथ घर को भी देखो .

दूना बोझ लो .

जब दूना बोझ रहेगा तो बाहर सफलता मिलने की संभावना कम हो जाएगी .

सफलता ना मिले तो यह ठप्पा लग जाएगा कि इनसे बाहर का कोई काम तो होता नहीं .

चली थी बहुत फने खा बनने .

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लो पैसा भी डुबो दिया असफलता भी मिली और उसके बाद अगर मातृत्व तो आ गया तो महीनों महीनों तक घर पर बैठो , वह भी ज़िंदगी में एक बार नहीं .

हो सकता है दो बार चार बार .

तो बैठे रहो घर पर और एक बार घर पर बैठ जाओ .

कुछ महीने या कुछ साल .

तो उसके बाद अपनी जो तीक्ष्णता होती है , sharpness होती है वह भी कुंद हो जाती है .

तलवार को जंग लग जाता है .

फिर बाहर निकलने का खुद ही मन नहीं करता .

एक बार तुम्हारा ग्रहणी बनने में मन लग गया .

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उसके बाद तुम चाहोगी ही नहीं कि मैं बाहर निकलूं और अपना आराम से घर में गृहिणी बनकर पराश्रित बनकर पड़ी रहोगी .

आदमी बेरोज़गार हो जाए तो दुनिया लानती भेजती है .

तो अहंकार की खातिर ही सही लेकिन उसे उठकर के बाहर निकलना पड़ता है कि कुछ कमाओ .

औरत बेरोज़गार घर में पड़ी है .

उसे तो कोई कुछ कहता भी नहीं .

कोई ताना नहीं मारेगा .

और पड़ी हुई है बढ़िया .

यह खतरनाक बात है इससे बचना .

समझ रहे हो ?

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कम कमाओ , लेकिन इतना तो ज़रूर कमाओ कि रोटी अपनी खाओ .

कोई हो घर में तुम्हारा पिता हो पति हो हो सकता है एक लाख कमाता हो , पांच लाख कमाता हो .

उससे तुलना मत करो अपनी .

अगर तुम बहुत नहीं कमा पा रही तो दस ही हज़ार कमाओ .

पर इतना तो रहे ना कि मुंह में जो टुकड़ा जा रहा है वह अपना है .

यह मत कह देना कि जब पति दस हज़ार पति जब एक लाख कमाता है .

तो मुझे कमाने की क्या ज़रूरत है और इस तरह की बातें अक्सर प्रेम के नाम पर चली जाती हैं कि प्रिय प्रिय .

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हिमांशु पूरा करेगा मेरी बात को .

करो बेटा .

मैं तुम्हारा ख़ुद भी कैसे सुनता ?

सुना ?

जब हम कमा ही रहे हैं तो तुम्हें क्या ज़रूरत ?

बेगम घर में रानी बनके बैठो .

अरे तब तो अच्छा लगता है ना सुनने में कि बिना मेहनत के ही हुज़ूर बोल रहे हैं कि घर में रानी बनकर बैठो और तब तो लगता है कि पुरुष इतने प्रेम से आग्रह कर रहा है कि घर में ही बैठो और हम कमाने निकल जाए तो इस बेचारे का दिल टूट जाएगा .

तो इसका दिल रखने के लिए हम घर में बैठते हैं .

ज़रा साल दो साल चार साल बाद पता चलता है कि खेल तो दूसरा था .

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बाहर निकलो , ढूंढो .

शुरू करने के लिए कोई काम छोटा नहीं होता और तुलना मत करना .

फिर कह रहा हूं कि पति इतनी बड़ी नौकरी करते हैं तो मैं कोई छोटी सी नौकरी कैसे कर लूं ?

बात तुलना की नहीं है .

बात आत्मनिर्भरता की है .

तुम पांच हज़ार , दस हज़ार जितना न्यूनतम कमा सकती हो उतने से ही शुरू कर लो , बाद में बढ़ता रहेगा .

अभी शुरुआत तो करो .

और किसी को बेरोज़गार रखने का ही बड़ा अच्छा तरीका होता है कि हां हां कर लेना नौकरी .

जब कम से कम पचास हज़ार की मिल जाए तो कर लेना .

ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी .

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ना तुम्हें पचास हज़ार वाली मिलेगी , ना करने की नौबत आएगी .

ऐसे नहीं बाहर निकलो .

पूरा व्यक्तित्व बदल जाएगा .

घर में घुसे घुसे व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है .

समझ रहे हो ?

बाहर निकलो .

मैं घर के काम को छोटा नहीं कह रहा .

मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि जो घर में कैद है उसे दुनिया का कुछ पता ही नहीं चलेगा .

उस काम का प्रकार कुछ ऐसा है कि वह तुम्हारे विकास में बाधा बनता है .

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वही काम तो निरंतर करते रहते हो ना ?

दुनिया में बाहर निकलते हो तो विकास की पचास संभावनाएं होती हैं .

घर में अपनी माँओं को देखा होगा .

वह चालीस साल पहले भी रोटी ही बनाती थी और आज भी रोटी ही बनाती है .

बाहर निकलते हो तो प्रोन्नति होती है ना promotion .

ग्रहणी का कोई promotion होता है ?

काम में बुराई नहीं है पर काम में विकास भी तो हो .

वह पहले भी दाल बनाती थी .

आज भी दाल ही बनाती है फिर उसने सीखा क्या ?

उसकी तरक्की कहां हुई ?

और घर में घुसे घुसे वह दुनिया से ऐसी cut जाती है कि उसे कोई खबर नहीं रहती .

हम बार बार कहते हैं तथ्य सत्य का द्वार है .

उसे तथ्यों का ही नहीं पता चलता .

जब तक तुम दुनिया में निकल नहीं रहे , सड़कों की धूल नहीं फ़ेंक रहे , बाज़ारों से रूबरू नहीं हो रहे .

तुम्हें क्या पता चलेगा ?

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घर का काम भी करो .

मैं पुरुषों से भी कहता हूं घर का काम भी करो और स्त्रियों से भी कहता हूं घर का काम भी करो .

पर अगर तुम ऐसे हो कि घर का काम ही कर रहे हो तो तुम्हारा विकास बाधित हो जाएगा .

मैं दोहरा के कह रहा हूं ताकि किसी को गलतफहमी ना हो जाए .

मैं घर के काम को छोटा नहीं मानता .

घर अपना है तो घर के सारे काम अपने हैं .

छोटे कैसे हो सकते हैं ?

किसी और का घर थोड़े ही है अपना ही तो घर है .

तो उनको मैं छोटा नहीं कह रहा .

पर घर के काम की सीमाओं को समझना आवश्यक है .

समझ रहे हो ?

कमाओ , बाहर निकलो और कमाओ .

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